Saturday, June 5, 2021

जिन्दगी और किश्ती

नदी की बहती हुई तेज लहरों पे
वो किश्ती कितनी बेवश है
लाचार है वो चाहे या ना चाहे
उसे चलना हीं होगा
किनाराआये या ना आये 
उसे चलना हीं होगा
अपनी जिन्दगी की किश्ती भी तो कुछ ऐसी ही है
वक़्त की तेज रफ्तार के सामने कहां रूकती है
कौन रोक पाता है लहरों को 
किश्ती की मंजिल का क्या पता
उसे तो खुद अपनी हीं मंजिल का पता मालूम नहीं
कितनी अन्जान हैं ये गुमनाम लहरें
लेकिन किश्ती की मंजिल का पता 
मालूम है किश्ती के मांझी को
वो जहां चाहे रोक सकता है
मोड सकता है किश्ती को 
अपनी जिन्दगी के मांझी तो हम खुद हीं हैं
ये हमारे हाथ है कोई अंजाम देना
अपनी जिन्दगी का जो भी हम चाहें

Thursday, August 6, 2020

उर के छालों की बात न कर.

 उर के छालों की बात न कर.......

ऊर के छालों की बात न ये दाग बड़े मामूली हैं 

जख्मों से भरे सीने कितने हर दिन टूटे सपने कितने 

ये मन की धरा इतनी उर्वर स्पर्श किया फूटे अंकुर ..

Sunday, February 6, 2011

फिर वही सुबह...

फिर वही सुबह बेसब्र बहुत बेबस भी लगी खोयी खोयी...
एक हाथ जो सर सहलाता था खुद बोझल हो अब दूर हुआ...
यादें अक्सर तन्हाई में बीते दीन याद दिलाती हैं...
तड़पती हैं जबतब लेकिन जीने का पथ पढ़ाती हैं...

...माँ की स्मृति में जो ७ फरवरी, २००८ से हमारे बीच नहीं हैं

सुमन.........

Wednesday, November 3, 2010

Waqt nahin ye sone ka....


Waqt nahin ab sone ka
Nahin gamon pe rone ka

Har taraf sugandhit aalam hai
Deepon ka laga ab mela hai
Andhiyare man ke dafan karo
Khushiyon ke liye kuchh jatan karo
Jo gujar gaya wo bhool bhee ja
Ye waqt nahin ab rone ka..

Mana kal bahut andhera tha
Jag soona tha man akela tha
Ab poori duniya mahak uthee
Joognoo ki chamak se nikhar gayee
AA hum bhee isme shamil ho
Ye waqt nahin ab sone ka..

Happy Deepawali:)

Wednesday, February 10, 2010

...ना अम्बर आएगा ना आश्मान से फ़रिश्ते आयेंगे.. .....ये दुनीया बसाई हमने सजाना भी पड़ेगा...... ....वादे तो कीये सबने निभाने का चलन भूले.... ....देते रहो सदायें कभी वो हँसते आयेंगे..... ~~~ http://lh5.google.com/_Xl9r0LQMDEA/SAT7pvxOypI/AAAAAAAAAJs/peiWLDaIs6Y/s400/c1.jpg

Thursday, September 18, 2008

माह की उनिकवि प्रतियोगिता के लिए मौलिक और अप्रकाशित कविता भेज रहा हूँ...कृपया स्वीकार कीजिये...सितम्बर

उर के छालों की बात न कर.......

ऊर्र के छालों की बात न
ये दाग बड़े मामूली हैं
जख्मों से भरे सीने कितने
हर दिन टूटे सपने कितने
ये मन की धरा इतनी उर्वर
स्पर्श किया फूटे अंकुर
सतरंगी चादर में लिपटी
अभिलाषा जब लेती अंगडाई
हर और उजाला सा फैले
जग लगे कोई महका उपवन
जब शाम ढले हौले- हौले
एक रह कहीं मुद जाती है
फ़िर मन की उदाशी मत पूछो
खो जाए कहीं सन्नाटे में
नितदिन ऐसे हीं कट्टा है
कोई रुकता है कोई चलता है
कोई घो नए दे जाता है
कोई बहलाता सहलाता है
कभी पानी आग बुझाये है
कभी पभी पानी ले डूबे जीवन
सबकुछ अनबुझ पहेली सी
कभी सब जन पहचाना सा
अब ये न कहो सब ख़त्म हुआ
कुछ शेष सदा रह जाता है...

उर के छालों की बात न कर
ये दाग बड़े मामूली हैं...

Friday, June 27, 2008

जग सारा तुझको नमन करे...

जग सारा तुझको नमन करे...
जग सारा तुझको नमन करे....
कोई चमन कहे कोई एक पहेली...
जितना सोचूं उतना उलझूं...
समझ मेरे ये आये न....
तुमबीन दुनीया कैसी होती...
ये सोच के दिल घबराता है....
पुरी दुनीया बंजर होती...
नज़र नहीं कुछ आता है....

कभी मैं जो कहीं तन्हां बैठूं...
मन जाने भटके कीधर- कीधर...
सब उलझा-उलझा सा लगे है...
लगता है कहीं खो जाऊंगा....
इस दुनीया के आँगन में...
शायद न कहीं कुछ पाउँगा....

रीश्तों की सारी बुनियादें...
मीठी यादें मुश्किल रहें...
सब तेरे दम से jinda हैं...
तू है तो धडके है दील सारे...
मन महके है तन जगे है...
लगे दुनीया रहने लायक...

कौन है तू कैसी है तू...
कहाँ से आये कीधर को जाये....
क्यूँ सब चाहें पर समझें न....
तुम बीन जीना क्यूँ मुश्कील है...
ये जानें सब पर मानें न...
तू परी है या एक पहेली...

आँखें बंद खामोश शमा...
जब सोचा तो एक अक्स दीखा...
तू माँ सी दिखी तू बहना सी....
कभी महबूबा कभी एक सहेली..
कैसे समझें नादाँ हैं हम.....
तू तो है एक अनबुझ पहेली....
***सुमन***